ईस्टर द्वीप चिल्ली के पश्चिम में प्रशांत महासागर में लगभग 3800 किलोमीटर दूर है। यूं तो इस दीप पर उनसे पूर्व भी कई लोग आए और गए । पर सही अर्थों में इसकी खोज का श्रेय अंग्रेज महिला कैथरीन राऊटलेज को दिया जाता है ।l उन्होंने सन 1914 –1915 में इस दीप की यात्रा की । इस द्वीप पर पत्थर की विशालकाय मूर्तियां हैं । यह मूर्तियां सिर्फ चेहरों की है। इनकी टांगे तथा धड़ नहीं है । इनकी ऊंचाई आमतौर से 12 से 15 फुट तक है । इनका वजन लगभग 20 टन तक है ।
अब तक ऐसे चेहरों वाली 1000 से अधिक मूर्तियां खोजी जा चुकी हैं । इन चेहरों को मोआई कहा जाता है । इनमें सबसे बड़ा चेहरा 32 फुट लंबा और 90 टन का है । प्रमाणिक रूप से आज तक कोई नहीं बता पाया है कि इन विशालकाय चेहरों को किसने बनवाया । आधुनिक वैज्ञानिकों के विचार है कि इन दैत्याकार मूर्तियों का निर्माण पोलिनेशियन लोगों ने करवाया था । इस बात के बहुत से प्रमाण मिल रहे हैं कि सन 1110 और 1205 के बीच तथा सन 1650 ई. तक अभी तक ईस्टर द्वीप के निवासी विशाल मूर्तियों और उनकी वेदियां बनाते रहे । उस समय इस द्वीप पर हनाउपे के नेतृत्व वाला गुट राज्य करता था ।
इन मूर्तियों के लिए प्रयोग में लाए गए पत्थरों को सरकाने का काम लकड़ी के तने काट कर बनाई गई सिलेजों पर रखा जाता था । ऐसा माना जाता है कि उस समय इस दीप की आबादी लगभग 20 हजार अवश्य ही होगी । विलियम मुलोई नामक एक विद्वान का अनुमान है कि इस देश के निवासी लकड़ी के सिलेजों की सहायता से पत्थरों को 1 दिन में 1000 फुट से अधिक नहीं सरका पाते होंगे । इन मूर्तियों के निर्माण के लिए लकड़ी के फ्रेम बना कर ऊपर चढ़ाते होंगे । इनमें से कुछ मूर्तियां ऐसे भी हैं जिनकी आंखें पूरी नहीं बन पाई । अधूरी मूर्तियों को अंधा मुवोई कहा जाता है। ऐसे लगभग सौ मूर्तियां हैं । इन विशालकाय मूर्तियों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो उदास चेहरे क्षितिज की ओर निहार रहे हो । यह मूर्तियां शायद वहां की नष्ट सभ्यता की प्रतीक है। ।
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